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Farmers shoud submit their application form to get solar pump on subsidy सब्सिडी पर सोलर पम्प लेने के लिये किसान करें अपना आवेदन फार्म

Table of contents

  • परिचय
  • किसानों को करना होगा फर्म एवं सोलर पम्प का चयन
  • सोलर पम्प के लिए आवेदन करने के लिए आवश्यक दस्तावेज

परिचय

देश में किसानों को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराने एवं कृषि की लागत कम करने के लिए सरकार प्रधानमंत्री किसान उर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान (पीएम-कुसुम) योजना चला रही है। योजना के तहत किसानों को सोलर पम्प की लागत पर भारी सब्सिडी दी जाती है। इस कड़ी में राजस्थान सरकार द्वारा राज्य में किसानों को सोलर पम्प की स्थापना पर 60 फीसदी अनुदान दिया जा रहा है। अभी राजस्थान में कई किसानों को अनुदान पर सौर उर्जा पम्प स्थापना हेतु किए गए आवेदनों को अपडेट करने के लिए कहा गया है। इस विषय में चूरु जिले के उद्यान उप निदेशक डॉ. धर्मवीर ने जानकारी देते हुए बताया कि चूरु जिले को इस योजना में 8,190 सोलर संयंत्र के लक्ष्य प्राप्त हुए हैं तथा सोलर पम्प संयंत्र स्थापना हेतु 21 फर्म अनुमोदित की गई है। किसान अभी फर्म एवं सोलर पम्प की क्षमता का चयन कर सकते हैं जिसके बाद आगे की कार्यवाही की जाएगी।

किसानों को करना होगा फर्म एवं सोलर पम्प का चयन

उद्यान उप-निदेशक ने जानकारी देते हुए बताया कि चूरु जिले में इस वर्ष 3 व 5 एचपी सोलर संयंत्र पर अनुदान का प्रावधान नहीं है। केवल 7.5 एचपी पर ही अनुदान देय है। इसलिए किसानों को पम्प की क्षमता भी अपडेट करना होगा। वहीं समस्त क्षमता (7.5 एचपी डीसी, 10 एचपी एसी व डीसी) के सोलर पम्प स्थापना हेतु वांछित भूमि की आवश्यकता न्यूनतम 0.4 हेक्टेयर की गई है। इसके साथ ही किसानों को जिले में अनुमोदित फर्मों में से किसी एक का चयन करना होगा।

सोलर पम्प के लिए आवेदन करने के लिए आवश्यक दस्तावेज

किसानों को सोलर पम्प के लिए किए गए आवेदन फ़ार्म को ई-मित्र केंद्र से या स्वयं राज किसान साथी पोर्टल पर अपडेट करना होगा। इसके लिए किसानों को जन-आधार कार्ड, आधार कार्ड, जमाबन्दी व नक्शा (6 माह से पुरानी न हो व डिजिटल हस्ताक्षरित अथवा पटवारी से प्रमाणित) एवं सिंचाई जल स्त्रोत व विद्युत कनेक्शन नहीं होने का स्वघोषित शपथ पत्र देना होगा। बता दें कि राजस्थान सरकार द्वारा राज्य में किसानों को पीएम-कुसुम योजना के तहत सिंचाई के लिये सोलर पम्प लगाने पर किसानों को 60 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है। साथ ही अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति श्रेणी के किसानों को 60 प्रतिशत अनुदान के साथ राज्य सरकार की तरफ से 45 हजार रुपए की अतिरिक्त सहायता राशि भी दी जा रही है।

Farmer should control pests in mustard crop in this way किसान इस तरह करें सरसों की फसल में लगने वाले कीटों का नियंत्रण

सरसों की फसल में लगाने वाले कीटों का नियंत्रण

देश में रबी सीजन के दौरान सरसों की खेती प्रमुखता से की जाती है। सरसों, भारत में सबसे महत्वपूर्ण खाद्य तेल फसलों में से एक है, देश के कई राज्यों के किसान इसकी खेती करते हैं। सरसों की बुआई अक्टूबर से दिसंबर महीने के दौरान की जाती है। इसके पूरे फसल चक्र यानि की बुआई से कटाई तक इसमें बहुत से कीट-रोग लगते हैं जिससे फसल को काफी नुकसान होता है। किसान समय पर इन कीट-रोगों की पहचान का उनका नियंत्रण कर सकते हैं। यदि किसान समय पर सरसों पर लगने वाले कीट-रोगों की पहचान कर उनका नियंत्रण कर लें तो इसके उत्पादन को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है। सरसों की फसल में मुख्यतः आरा मक्खी, माहूं, पेंटेड बग आदि कीट लगते हैं जो फसल को काफी नुकसान पहुँचाते हैं। आइये जानते किसान किस तरह इन कीट की पहचान कर उनका नियंत्रण कर सकते हैं।

यदि किसान समय पर सरसों पर लगने वाले कीट-रोगों की पहचान कर उनका नियंत्रण कर लें तो इसके उत्पादन को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है। सरसों की फसल में मुख्यतः आरा मक्खी, माहूं, पेंटेड बग आदि कीट लगते हैं जो फसल को काफी नुकसान पहुँचाते हैं। आइये जानते किसान किस तरह इन कीट की पहचान कर उनका नियंत्रण कर सकते हैं।

सरसों की फसल में लगाने वाली आरा मक्खी की पहचान

सरसों की फसल में अक्सर अंकुरण के 25 से 30 दिनों बाद आरा मक्खी का प्रकोप हो जाता है। यह कीट फसल को अधिक नुकसान पहुंचाता है। शुरुआत में यह कीट फसल के छोटे पौधों पर दिखाई देते हैं। इसकी गिडारें पत्तियों को कुतरना शुरू करती हैं। इसके बाद ये खाने के लिए किनारे से मध्य शिरा की ओर बढती है। ये पत्तियों को तेजी से खाती है तथा पत्तियों में अनगिनत छेद बना देती हैं। इनका प्रकोप अधिक होने पर पत्तियाँ पूरी तरह से शिराओं के जाल में बदल जाती हैं। यह मक्खी प्ररोह की बाहरी त्वचा को खा जाती है। इससे प्ररोह सुख जाते हैं और पुराने पौधे बीज पैदा करना बंद कर देते हैं।

इस तरह करें आरा मक्खी का नियंत्रण

आरा मक्खी प्रबंधन के लिए अंकुर अवस्था में सिंचाई करने से अधिकांश लार्वा डूबने के प्रभाव से मर जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए किसान मैलाथियान ईसी 50 प्रतिशत प्रति 600 मि.ली. 200–400 लीटर पानी/एकड़ या मिथाईल पैराथियान 2 प्रतिशत डीपी प्रति 6,000 ग्राम/एकड़ में से किसी एक रासायनिक दवा का छिड़काव कर इस कीट को खत्म कर सकते हैं।

सरसों में महू या चेंपा रोगों की पहचान

सरसों के पौधों में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कीट माहूं यानि चैंपा कहलाता है। वयस्क और शिशु दोनों ही पत्तियों, कलियों और फलियों से रस ग्रहण करते हैं। इससे संक्रमित पत्तियां मुड़ जाती हैं और बाद के चरण में, पौधे सुखकर मुरझा जाते हैं। पौधों का विकास अवरुद्ध हो जाता है, इस कारण पौधे बौने रह जाते हैं। कीटों द्वारा उत्सर्जित शहद के ओस पर कालिख युक्त फफूंद आ जाती है।

महू व चेपा रोग का नियंत्रण

सरसों–एफिड जैसे मुख्य रोगों से होने वाले नुकसान से बचने के लिए किसानों को जल्दी बुआई करना चाहिए। साथ ही इसके लिए सहनशील प्रजातिओं का उपयोग किसान कर सकते हैं। जैविक नियंत्रण में सरसों के एफिड के लिए 2 प्रतिशत नीम तेल और 5 प्रतिशत नीम बीज गिरी अर्क (एनएसकेई) का छिड़काव किसानों को करना चाहिए।

इसकी रोकथाम के लिए आँक्सीडेमेटोन- मिथाइल 25 प्रतिशत ईसी/ 400 मि.ली. 200–400 लीटर पानी / एकड़ या मैलाथियान 50 प्रतिशत ईसी/400 मि.ली. 200–400 लीटर पानी/एकड़ का छिड़काव कर सकते हैं। या थियामेथोक्सम 25 प्रतिशत डब्ल्यूजी /20 – 40 ग्राम 200 – 400 लीटर पानी / एकड़ में से किसी एक का छिड़काव भी किया जा सकता है।

सरसों की फसल में पेंटेड बग की पहचान

यह कीट बदलते मौसम के दौरान फसल पर दो बार हमला करता है। पहली बार अक्टूबर से नवंबर में एवं दूसरी बार मार्च और अप्रैल महीने में फसल के परिपक्व होने से पहले। निम्फ और वयस्क जिन पत्तियों और फलियों से कोशिका रस ग्रहण करते हैं वे धीरे-धीरे मुरझा जाती है तथा सूख जाती हैं। फलियाँ चूसने के कारण वे सिकुड़ जाती हैं और बीजों का विकास रूक जाता है। इस वजह से तेल की उपज भी कम हो जाती है।

पेंटेड बग का नियंत्रण

किसानों को सरसों की फसल को इस कीट से बचाने के लिए शीघ्र बुआई कर देनी चाहिए। फिर भी यदि इस कीट का प्रकोप होता है तो किसान इसके लिए रासायनिक दवाओं का छिड़काव कर सकते हैं। इसकी रोकथाम के लिए किसान इमिडाक्लोरोप्रिड 70 प्रतिशत WS/700 ग्राम/100 किलोग्राम बीज या डाइक्लोरवास 76 प्रतिशत ईसी/250.8 मिली 200-400 लीटर पानी/ एकड़ में छिड़काव करें या फोरेट 10 प्रतिशत सीजी/6000 ग्राम/एकड़ का भी प्रयोग कर सकते हैं।

How to cultivate muskmelon खरबूजे की खेती कैसे करें

  • परिचय
  • खरबूजा बोने का सही समय,उपयुक्त मिट्टी, जलवायु और तापमान 
  • खरबूजे की उन्नत किस्में
  • खरबूजे के खेत की तैयारी और उवर्रक
  • खरबूजे के बीजो की रोपाई का सही समय और तरीका
  • खरबूजे के पौधों की सिंचाई 
  • खरबूजे के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण
  • खरबूजे के फलो की तुड़ाई, पैदावार 

परिचय

खरबूजा ईरान, अरमीनिया और अनटोलिया मूल का फल है | किन्तु भारत में भी अब इसे अधिक मात्रा में उगाया जाने लगा है | भारत में खरबूजे की खेती उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, बिहार और राजस्थान में मुख्य रूप से कर अधिक मात्रा में उत्पादन भी प्राप्त किया जा रहा है |

खरबूजा बोने का सही समय,उपयुक्त मिट्टी, जलवायु और तापमान 

खरबूजे की खेती किसी भी उपजाऊ मिट्टी में की जा सकती है,किन्तु अधिक मात्रा में उत्पादन प्राप्त करने के लिए हल्की रेतीली बलुई दोमट मिट्टी को उपयुक्त माना जाता है | इसकी खेती के लिए भूमि उचित जल निकासी वाली होनी चाहिए, क्योकि जलभराव की स्थिति में इसके पौधों पर अधिक रोग देखने को मिल जाते है | इसकी खेती में भूमि का P.H. मान 6 से 7 के मध्य होना चाहिए|

जायद के मौसम को खरबूजे की फसल के लिए अच्छा माना जाता है | इस दौरान पौधों को पर्याप्त मात्रा में गर्म और आद्र जलवायु मिल जाती है | गर्म मौसम में इसके पौधे अच्छे से वृद्धि करते है, किन्तु सर्द जलवायु इसकी फसल के लिए बिल्कुल उपयुक्त नहीं होती है | बारिश के मौसम में इसके पौधे ठीक से वृद्धि करते है, लेकिन अधिक वर्षा पौधों के लिए हानिकारक होती है | इसके बीजो को अंकुरित होने के लिए आरम्भ में 25 डिग्री तापमान की आवश्यकता होती है, तथा पौधों के विकास के लिए 35 से 40 डिग्री तापमान जरूरी होता है |

खरबूजे की उन्नत किस्में

पंजाब सुनहरी :- खरबूजे की इस क़िस्म को तैयार होने में 115 दिन से अधिक का समय लग जाता है | यह क़िस्म पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा तैयार की गयी है | इसमें निकलने वाले फलो में गूदा अधिक मात्रा में पाया जाता है, जो स्वाद में अधिक मीठा होता है| यह क़िस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 250 क्विंटल का उत्पादन दे देती है |

हिसार मधुर :- इस क़िस्म के फल बीज रोपाई के ढाई माह पश्चात् तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है | इसे हरियाणा के चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय, हिसार द्वारा तैयार किया गया है | इस क़िस्म में निकलने वाले फलो का छिलका धारीनुमा और अधिक पतला पाया जाता है | जिसमे नारंगी रंग का गुदा होता है | खरबूजे की यह क़िस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 200 से 250 क्विंटल का उत्पादन दे देती है |

एम.एच.वाई. 3 :-यह एक संकर क़िस्म है, जिसे जयपुर ने दुर्गापुरा मधु, कृषि अनुसंधान केंद्र दुर्गापुरा और पूसा मधुरस का संकरण कर तैयार किया है | इस क़िस्म के पौधे बीज रोपाई के 90 दिन पश्चात् तुड़ाई के लिए तैयार हो जाते है | खरबूजे की इस क़िस्म में निकलने वाले फलो में 16 प्रतिशत अधिक मात्रा में मिठास पायी जाती है | यह क़िस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 200 क्विंटल का उत्पादन दे देती है |

मृदुला :- इस क़िस्म को तैयार होने में 90 दिन से अधिक का समय लग जाता है | जिसमे निकलने वाले फलो में गूदे की मात्रा अधिक तथा बीज कम मात्रा में पाए जाते है | इसके फल थोड़ा लम्बे और अंडाकार होते है | यह क़िस्म प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 250 क्विंटल का उत्पादन दे देती है |

सागर 60 एफ 1 :-गुजरात में अधिक मात्रा में उगाई जाने वाली यह एक संकर क़िस्म है | यह क़िस्म 90 से 95 दिन पश्चात् तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है | इस क़िस्म में निकलने वाले फलो के ऊपर धारीदार पतला छिलका पाया जाता है, जिसमे निकलने वाला गूदा नारंगी और स्वाद में अधिक स्वादिष्ट होता है | यह क़िस्म प्रति हेक्टयर के हिसाब से 230 से 270 क्विंटल का उत्पादन दे देती है |

पूसा शरबती :- खरबूजे की यह क़िस्म भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा अमेरिकन क़िस्म के साथ संकरण कर तैयार की गयी है | यह अगेती पैदावार के लिए उगाई जाती है | भारत के उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश राज्य में इसे अधिक मात्रा में उगाया जाता है | इस क़िस्म को तैयार होने में 95 से 100 दिन का समय लग जाता है, जो प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 250 क्विंटल का उत्पादन दे देती है |

इसके अलावा भी खरबूजे की कई उन्नत क़िस्मों को अधिक उत्पादन देने के लिए उगाया जा रहा है, जो इस प्रकार है:- दुर्गापुरा मधु, एम- 4, स्वर्ण, एम. एच. 10, हिसार मधुर सोना, नरेंद्र खरबूजा 1, एम एच 51, पूसा मधुरस, अर्को जीत, पंजाब हाइब्रिड, पंजाब एम. 3, आर. एन. 50, एम. एच. वाई. 5 और पूसा रसराज आदि |

खरबूजे के खेत की तैयारी और उवर्रक

खरबूजे की खेती में भुरभुरी मिट्टी की जरूरत होती है | इसके लिए सबसे पहले खेत में मौजूद पुरानी फसल के अवशेषों को नष्ट करने के लिए मिट्टी पलटने वाले हलो से गहरी जुताई कर दी जाती है | जुताई के बाद भूमि में सूर्य की धूप लगने के लिए उसे कुछ समय के लिए ऐसे ही खुला छोड़ दिया जाता है | इसके बाद खेत में पानी लगाकर पलेव कर दिया जाता है, पलेव के बाद जब खेत की मिट्टी ऊपर से सूखी दिखाई देने लगती है | उस दौरान कल्टीवेटर लगाकर खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर दी जाती है | इससे खेत की मिट्टी में मौजूद मिट्टी के ढेले टूट जाते है, और मिट्टी भुरभुरी हो जाती है |

मिट्टी के भुरभुरा हो जाने के बाद खेत में पाटा चलाकर भूमि को समतल कर दिया जाता है | समतल भूमि में वर्षा के मौसम में खेत में जलभराव नहीं होता है | इसके बाद खेत में बीज रोपाई के लिए उचित आकार की क्यारियों को तैयार कर लिया जाता है | यह क्यारिया धोरेनुमा भूमि की सतह पर 10 से 12 फ़ीट की दूरी पर बनाई जाती है | इसके अलावा यदि आप बीजो की रोपाई नालियों में करना चाहते है, तो उसके लिए आपको भूमि पर एक से डेढ़ फ़ीट चौड़े और आधा फ़ीट गहरी नालियों को तैयार करना होता है| तैयार की गयी इन क्यारियों और नालियों में जैविक और रासायनिक खाद का इस्तेमाल किया जाता है | इसके लिए आरम्भ में 200 से 250 क्विंटल पुरानी गोबर की खाद को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में देना होता है |

इसके अतिरिक्त रासायनिक खाद के रूप में 60KG फास्फोरस, 40KG पोटाश और 30KG नाइट्रोजन की मात्रा को प्रति हेक्टेयर में तैयार नालियों और क्यारियों में देना होता है | जब खरबूजे के पौधों पर फूल खिलने लगे उस दौरान 20KG यूरिया की मात्रा को प्रति हेक्टेयर के हिसाब से देना होता है | इन गड्डो और क्यारियों को बीज रोपाई से 20 दिन पूर्व तैयार कर लिया जाता है |

खरबूजे के बीजो की रोपाई का सही समय और तरीका

खरबूजे के बीजो की रोपाई बीज और पौध दोनों ही रूप में की जा सकती है | किन्तु पौध के रूप में रोपाई करना अधिक कठिन होता है | जिस वजह से किसान भाई इसे बीजो के माध्यम से लगाना अधिक पसंद करते है | एक हेक्टेयर के खेत में तकरीबन एक से डेढ़ किलो बीजो की आवश्यकता होती है, तथा बीज रोपाई से पूर्व उन्हें कैप्टान या थिरम की उचित मात्रा से उपचारित कर लिया जाता है | इससे बीजो को आरम्भ में लगने वाले रोग का खतरा कम हो जाता है |

इन बीजो को क्यारियों और नालियों की दोनों और लगाया जाता है | इन बीजो को दो फ़ीट की दूरी और 2 से 3CM की गहराई में लगाया जाता है | समतल भूमि में बीजो की रोपाई जिग-जैग विधि द्वारा की जाती है | बीज रोपाई के पश्चात् टपक विधि द्वारा खेत की सिंचाई कर दी जाती है | खरबूजों के बीजो की रोपाई फ़रवरी के महीने में की जाती है, तथा अधिक ठंडे प्रदेशो में इसे अप्रैल और मई के माह में भी लगाया जाता है |

खरबूजे के पौधों की सिंचाई

खरबूजे के पौधों को अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है | इसके खेत में बीज अंकुरण के समय तक नमी बनाये रखने के लिए पानी देते रहना होता है | इसलिए इसकी प्रारंभिक सिंचाई बीज रोपाई के तुरंत बाद कर दी जाती है | गर्मियों के मौसम में इसके पौधों को सप्ताह में दो सिंचाई की आवश्यकता होती है, तथा सर्दियों के मौसम में 10 से 12 दिन के अंतराल में पानी देना होता है | इसके अलावा जब बारिश का मौसम हो तो जरूरत के हिसाब से ही पौधों को पानी दे |

खरबूजे के पौधों पर खरपतवार नियंत्रण

खरबूजे के पौधे भूमि की सतह पर ही विकास करते है, जिस वजह से खरपतवार नियंत्रण की अधिक जरूरत होती है | इसके पौधों की पहली गुड़ाई 15 से 20 दिन के अंतराल में की जाती है, तथा बाद की गुड़ाई को 10 दिन के अंतराल में करना होता है | इसके अतिरिक्त यदि आप रासायनिक विधि का इस्तेमाल करना चाहते है, तो उसके लिए आपको ब्यूटाक्लोर की उचित मात्रा का छिड़काव भूमि पर करना होता है |

खरबूजे के पौधों में लगने वाले रोग एवं उपचार
क्रम संख्यारोगरोग के प्रकारउपचार
1.पत्ती झुलसाफफूंदपौधों पर मैंकोजेब या कार्बेन्डाजिम का छिड़काव
2.चेपाकीटपौधे पर थाइमैथोक्सम का छिड़काव
3.लाल कद्‌द भृंगकीटपौधे पर एमामेक्टिन या कार्बेरिल का छिड़काव
4.सफेद मक्खीकीटपौधे पर इमिडाक्लोप्रिड या एन्डोसल्फान का छिड़काव
5.पत्ती सुरंगकीटपौधों पर एबामेक्टिन का छिड़काव
6.चूर्णिल आसिताफफूंदहेक्साकोनाजोल या माईक्लोबूटानिल का छिड़काव
7.सुंडीकीटपौधे पर क्लोरोपाइरीफास का छिड़काव
8.फल विगलनसड़नजल भराव रोकथाम कर
खरबूजे के फलो की तुड़ाई, पैदावार और लाभ

खरबूज़े के पौधे बीज रोपाई के 80 से 90 दिन पश्चात् पैदावार देना आरम्भ कर देते है | जब इसके फलो का डंठल सूखा दिखाई देने लगे और फल से एक खास तरह की खुशबु आने लगे उस दौरान इसके फलो की तुड़ाई कर ली जाती है| फलो की तुड़ाई के बाद उन्हें बाजार में बेचने के लिए भेज दिया जाता है | इस हेक्टेयर के खेत में तक़रीबन 200 से 250 किवंटल का उत्पादन प्राप्त हो जाता है | खरबूज़े का बाज़ारी भाव 15 से 20 रूपए प्रति किलो होता है, जिससे किसान भाई इसकी एक बार की फसल से 3 से 4 लाख की कमाई कर अच्छा लाभ कमा सकते है |

How to do advanced watermelon cultivation तरबूज की उन्नत खेती कैसे करें

  • परिचय
  • किस्मे
  • भूमि और जलवाऊ
  • भूमि की तैयारी
  • बीज दर और बीजोपचार
  • बुवाई रोपाई की वैज्ञानिक विधि
  • सिंचाई
  • खाद एवं उर्वरक प्रबंधन

तरबूज एक बेलवाली गर्मी के मौसम में उगाई जाने वाली कद्दूवर्गीय महत्वपूर्ण फसल है। तरबूज हमारे देश में एक बहुत ही लोकप्रिय फल है। गर्मी में तरबूज का फल, फ्रूट डिश, जूस, शरबत, स्क्वैश आदि अनेक रूप से उपयोग होता है। तरबूज के पोषण और स्वास्थ्य लाभ भी कई हैं। इसकी खेती आर्थिक रूप से फायदेमंद मानी जाती है। यह एक बेहतरीन और ताजगीदायक फल है। प्रति 100 ग्राम तरबूज में 95.8 ग्राम पानी होता है। इसी लिए गर्मियों मे तरबूज का सेवन धूप की वजह से होने वाले निर्जलीकरण से बचाता है और शरीर को ताजगी से भरे रखता है। तरबूज गर्मियों में अक्सर होने वाले मूत्रमार्ग के संक्रमण से निजात पाने में भी सहायक है। इसमें उपलब्ध पोटेशियम हमारे हृदय को स्वस्थ एवं रक्तचाप को संतुलित बनाए रखने के लिए काफी महत्वपूर्ण होता है। तरबूज लगभग 119 मि.ग्रा. पोटेशियम देता है, जो कि हृदय के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।

 तरबूज एक लो-कैलोरी फल है, जो सिर्फ 16 किलो कैलोरी ऊर्जा प्रदान करता है। यह प्रोटीन और वसा का निम्न स्रोत है। इसीलिए मोटे व्यक्ति भी तरबूज का सेवन बिना वजन बढ़ने की चिंता के कर सकते हैं। यह उपयोगी विटामिन ‘ए’ एवं विटामिन ‘सी’ भी प्रदान करता है। तरबूज लौह तत्व का एक बढ़िया स्रोत है और लगभग 7.9 मि.ग्रा. लौह तत्व देता है। इसलिए तरबूज किशोरी, सगर्भा एवं धात्री माता के लिए लौह का एक अच्छा स्रोत है। छह माह परे होने के तरंत बाद जब बच्चों को परक आहार देना होता है, तब तरबूज का रस एक स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्यप्रद विकल्प है।

तरबूज की प्रमुख किस्मों एवं संकर में मैक्स , कोहिनूर , बाहुबली , ताज 20, शुगर बेबी, अर्का मानिक एवं अर्का ज्योति प्रमुख मानी जाती हैं। इसके अलावा कई बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के बीज किसानों में प्रचलित हैं। बुआई के लिए उपयुक्त प्रजाति का चयन बाजार में मांग, उत्पादन क्षमता एवं जैविक अथवा अजैविक प्रकोप की प्रतिकारक क्षमता पर निर्भर करता है।

मध्यम काली, रेतीली दोमट मृदा, जिसमें प्रचुर मात्रा में कार्बनिक पदार्थ एवं उचित जल क्षमता हो, तरबूज की सफल खेती के लिए उचित मानी जाती है। तटस्थ मृदा (6.5-7 पी-एच मान वाली) इसकी खेती के लिए बेहतर मानी जाती है। मृदा में घुलनशील कार्बोनेट और बाइकार्बोनेट क्षार उपयुक्त नहीं हो सकते। नदी किनारे की रेतीली दोमट मृदा अच्छी मानी जाती है। तरबूज फल के मीठा होने के लिए गर्मी का मौसम उचित माना कर सकते हैं। जनवरी-फरवरी में कर सकते हैं।खरीफ मौसम में तरबूज की फसल लेने के लिए इसकी बुआई जून-जुलाई में कर सकते हैं। तरबूज फसल के लिए गर्म और शुष्क जलवायु उचित मानी जाती है। फल की वृद्धि और विकास के दौरान गर्म दिन (30 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान) और ठंडी रात तरबूज फल की मिठास के लिए अच्छी मानी जाती है।

गहरी जुताई के समय अच्छी तरह से विघटित गोबर या कम्पोस्ट खाद 15-20 टन प्रति हैक्टर मृदा में दें, ताकि खेत साफ, स्वच्छ एवं भुरभुरा तैयार हो। इससे अंकुरण प्रभावित हो सकता है।

तरबूज की उन्नत किस्मों के लिए बीज दर 2.5-3 कि.ग्रा. और संकर किस्मों के लिए 750-875 ग्राम प्रति हैक्टर पर्याप्त होती है। बुआई के पहले बीज को कार्बेन्डाजिम फफूंदनाशक 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में लगभग तीन घंटे तक डुबोकर उपचारित कर सकते हैं। उसके बाद उपचारित किए हुए बीजों को नम जूट बैग में 12 घंटे तक छाया में रख सकते हैं और फिर खेत में बुआई कर सकते हैं।

भूमि की तैयारी के बाद 60 सें.मी. चौड़ाई और 15-20 सें.मी. ऊंचाई वाली क्यारियां (रेज्ड बेड) तैयार की जाती हैं। क्यारियों में 6 फीट का अंतर रख सकते हैं। क्यारियों पर बीचों-बीच में लेटरल्स फैलाने चाहिए। क्यारियों को 4 फीट चौड़ाई के 25-30 माइक्रॉन मोटे मल्चिंग पेपर से कसकर फैलाना चाहिए। क्यारियों पर कसकर फैले मल्चिंग पेपर में बुआई/रोपण के कम से कम एक दिन पहले 30-45 सें.मी. की दूरियों पर छेद कर लेना चाहिए। इससे मृदा की गर्म हवा को बाहर निकाल सकते हैं।बुआई/रोपण से पहले क्यारियों की सिंचाई करें। प्रोट्रे में कोकोपीट का उपयोग करके 15-21 दिनों की आय के पौधों का : रोपाई के लिए उपयोग करें। 

रोपाई का काम सुबह या शाम कियाजाना चाहिए और आधा घंटा टपकन सिंचाई चालू रखे । पहले 6 दिन मृदा प्रकार अथवा जलवायु के अनुसार सिंचाई करें (प्रत्येक दिन 10 मिनट), शेष सिंचाई प्रबंधन फसल वृद्धि और विकास के अनुसार करें। तरबूज फसल पानी की जरूरत के प्रति बहुत संवेदनशील होती है। प्रारंभिक स्थिति में पानी की आवश्यकता कम होती है। वृद्धि और विकास अवस्था के अनुसार पानी की जरूरत बढ़ जाती है। यदि प्रारंभिक अवस्था में पानी अधिक हो जाता है, तो अंकुरण, रोपाई की वद्धि और कीट एवं रोग संक्रमण पर हानिकारक प्रभाव करता है। जल प्रबंधन मृदा के प्रकार और फसल के विकास पर निर्भर पड़ता है। सामान्यतः 5-6 दिनों के अंतराल पर पानी देना चाहिए। फलधारण से पानी का तनाव नहीं होना चाहिए। सुबह 9 बजे तक सिंचाई करें। अनियमित सिंचाई से फल फटना. विकत आकार वाले फल एवं अन्य विकृतियों की आशंका होती है।

मृदा जांच के आधार पर खाद और उर्वरक का प्रयोग करना उचित रहता है। अच्छी तरह से विघटित गोबर या कम्पोस्ट खाद 15-20 टन प्रति हैक्टर खेत तैयार करते समय मृदा में दें। नीम खली (नीम केक) 250 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर दे सकते हैं। जैविक उर्वरक एजोटोबॅक्टर 5 कि.ग्रा., पी.एस.बी. 5 कि.ग्रा. और टाइकोडर्मा 5 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर रासायनिक उर्वरक प्रयोग से लगभग 10वें दिन के बाद देना उचित माना जाता है। पानी में घुलनशील जैव उर्वरक टपकन सिंचाई से भी दे सकते हैं। जैव उर्वरक का रासायनिक उर्वरक के साथ प्रयोग न करें। तरबूज फसल के लिए रासायनिक उर्वरक के रूप में प्रति हैक्टर 50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन की मात्रा (यूरिया 109 कि.ग्रा.), 50 कि.ग्रा. फॉस्फोरस (एस.एस.पी. 313 कि.ग्रा.) एवं 50 कि.ग्रा. पोटाश (एम.ओ.पी. 83 कि.ग्रा.) बुआई/रोपण के समय दिया जाना चाहिए। शेष नाइट्रोजन की मात्रा 50 कि.ग्रा. (यूरिया 109 कि.ग्रा.) को बुआई के 30, 45 एवं 60 दिनों में समान भाग में देना चाहिए। खाद का उपयोग मृदा में उपस्थित आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता एवं मृदा परीक्षण के ऊपर निर्भर रहता है

Solar fencing scheme will be made to protect crops from animals फसलों को पशुओं से बचाने के लिए बनाई जाएगी सोलर फेंसिग योजना

  • Table of contants
  • सोलर फेंसिग योजना
  • सोलर फेंसिग के लिए तैयार की जायेगी योजना
  • मुख्यमंत्री ने पॉली हाउस एवं पैक हाउस बनाने के निर्देश ।

सोलर फेंसिंग योजना

देश में किसानों की फसलों को जंगली जानवरों एवं आवारा पशुओं से काफी नुक़सान होता है। इसके अलावा किसानों को खेतों की रखवाली करने के लिए परेशान भी होना पड़ता है। जिसको देखते हुए सरकार द्वारा किसानों की मेहनत से उपजाई जाने वाली फसलों की सुरक्षा के लिए कई कदम उठाये जा रहे हैं। इस कड़ी में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कृषि अधिकारियों को खेतों की सुरक्षा के लिए तार फेंसिंग योजना बनाने के निर्देश दिए हैं। कृषि विभाग की समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री योगी ने अधिकारियों को खेत सुरक्षा योजना को चरणबद्ध तरीके से लागू करने और खेतों की तार फेंसिंग के लिए प्रोत्साहन योजना बनाने के निर्देश दिए।

सोलर फेंसिग के लिए तैयार की जायेगी योजना

मुख्यमंत्री ने निराश्रित पशुओं, जंगली जानवरों से कृषि की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए किसानों को सोलर फेंसिग के लिए प्रोत्साहित करने की आवश्यकता जताई। उन्होंने कहा कि वन रोज अथवा निराश्रित पशुओं के कारण किसानों की फसलों को नुक़सान होने की सूचना मिलती रहती है। इसके स्थाई समाधान के लिए हमें किसानों को सोलर फेंसिंग के लिए प्रोत्साहित करना होगा।

समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री ने खेत सुरक्षा योजना को चरणबद्ध रूप से लागू किए जाने के निर्देश अधिकारियों को दिए। पहले चरण में वन विभाग और कृषि विभाग संयुक्त रूप से सर्वेक्षण कर वन क्षेत्र से लगी कृषि भूमि का आँकलन करेंगे। उसके बाद वहाँ सोलर फेंसिंग करायी जाएगी। इसके बाद नदी किनारे की कृषि भूमि की सोलर फेंसिंग करायी जाएगी। मुख्यमंत्री ने सोलर फेंसिंग के लिए विस्तृत कार्य योजना तैयार करने के निर्देश अधिकारियों को दिए।

मुख्यमंत्री ने पॉली हाउस एवं पैक हाउस बनाने के निर्देश ।

कृषि विभाग की समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री ने कृषि विकास योजना की समीक्षा करते हुए कहा कि इसके तहत कृषक उत्पादक संगठनों (एफ़.पी.ओ.) को ग्राम पंचायत स्तर एवं ब्लॉक स्तर पर वेयरहाउस बनाने व संचालन कार्य से जोड़ने की बात कही। इसी प्रकार पॉली हाउस व पैक हाउस बनाए जाएँ तथा कृषि विज्ञान केंद्रों में जैविक उत्पादों की टेस्टिंग लैब स्थापित की जा सकती है। मुख्यमंत्री ने इस संबंध में कृषि विभाग को उद्यान विभाग, पशुपालन विभाग के साथ मत्सय विभाग के साथ समन्वय स्थापित करते हुए विस्तृत कार्य योजना बनाने के निर्देश दिए।

फसल को पाले से कैसे बचाये, दिसंबर-जनवरी में पाले से रहें सावधान, जरा सी चूक फसलों को पहुंचा सकती है भारी नुकसान

फसल को पाले से कैसे बचाये,दिसंबर से जनवरी के महीने में पाला पड़ने की संभावना बढ़ जाती है, जिससे फसलों को काफी नुकसान हो सकता है.

जब ठंड अधिक होती है, शाम को हवा रुक जाती है, रात्रि में आकाश साफ होता है और आर्द्रता अधिक होती है, उन रातों में पाला पड़ने की संभावना सबसे अधिक होती है.

आजकल जलवायु और वातावरण में काफी परिवर्तन देखा जा रहा है. इस समय, ओस, कोहरा, ठंड, पाले और धुंध का असर धीरे-धीरे दिखाई दे रहा है. इस बदलते मौसम के लिए किसानों को तैयार रहना होगा. स्वच्छ और शांत रातों में, जब धरती तेज गति से ठंडा होती है, तब ओस उत्पन्न होती है. रात्रि में जब बादल होते हैं तो ओस नहीं पड़ती है. दिसंबर से जनवरी के महीने में पाला पड़ने की संभावना बढ़ जाती है, जिससे फसलों को काफी नुकसान हो सकता है. जिन दिनों में ठंड अधिक होती है, शाम को हवा का चलना रुक जाता है. रात्रि में आकाश साफ होता है और आर्द्रता अधिक होती है, उन रातों में पाला पड़ने की संभावना सबसे अधिक होती है. पाले से गेहूं और जौ में 10 से 20 फीसदी और सरसों, जीरा, धनिया, सौंफ, अफीम, मटर, चना, गन्ने आदि में लगभग 30 से 40 फीसदी तक और सब्जियों में जैसे आलू, टमाटर, मिर्ची, बैंगन आदि में 40 से 60 फीसदी तक नुकसान होता है. 

दिसंबर और जनवरी में तापमान 4 डिग्री सेंटीग्रेड से कम होते हुए शून्य डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुंच जाता है. ऐसी स्थिति में पाला पड़ता है. पाला पड़ने से पौधों की कोशिकाओं के रिक्त स्थानों में उपलब्ध जलीय घोल ठोस बर्फ में बदल जाता है, जिसका घनत्व अधिक होने के कारण पौधों की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो जाती हैं. इसके कारण कार्बन डाइऑक्साइड, ऑक्सीजन, वाष्प उत्सर्जन और अन्य दैहिक क्रियाओं में बाधा पड़ती है जिससे पौधा नष्ट हो जाता है.

पाला के प्रभाव से पत्तियां झुलसने लगती हैं. फूलो में सिकुड़न आने लगती है और वे झड़ने लगते हैं. फल कमजोर और कभी-कभी मर भी जाता है. पाले से फसल का रंग समाप्त होने लगता जिससे पौधे कमजोर और पीले पड़ने लगाते हैं और पत्तियों का रंग मिट्टी के रंग जैसा दिखने लगता है. फसल सघन होने से पाले का असर अधिक दिखता है क्योंकि पौधों के पत्तों तक धूप, हवा नहीं पहुंच पाती है. इससे पत्ते सड़ने लगते हैं और जीवाणुओं, फफूंदों का प्रकोप तेजी से होता है. इससे पौधों में कई बीमारियों का प्रकोप बढ़ने लगता है. फल के ऊपर धब्बे पड़ जाते हैं, जिसके कारण गुणवत्ता और स्वाद भी खराब हो जाता है. पाले के प्रभाव से फल और सब्जियों में कीटों का प्रकोप भी बढ़ने लग जाता है, जिससे सब्जियों की गुणवत्ता और उपज खराब और घट जाती है. इससे कभी-कभी शत प्रतिशत सब्जियों की फसल नष्ट हो जाती है.

 पाला पड़ने से पाले के कारण अधिकतर पौधों के पत्ते, टहनियां और तने के नष्ट होने से पौधों को अधिक बीमारियां लग जाती हैं. फूलों के गिरने से पैदावार में कमी आ जाती है. पत्तियां और फूल मुरझा जाते हैं और झुलस कर बदरंग हो जाते हैं. दाने छोटे बनते हैं. फूल झड़ जाते हैं. उत्पादन अधिक प्रभावित होता है. पाला पड़ने से आलू, टमाटर, मटर, मसूर, सरसों, बैंगन, अलसी, जीरा, अरहर, धनिया, पपीता, आम और अन्य नवरोपित फसलें अधिक प्रभावित होती हैं.

पाले की तीव्रता अधिक होने पर गेहूं, जौ, गन्ना आदि फसलें भी इसकी चपेट में आ जाती हैं. पाला गेहूं और जौ में 10 से 20 परसेंट और सरसों, जीरा, धनिया, सौंफ, अफीम, मटर, चना, गन्ने आदि में लगभग 30 से 40 परसेंट तक और सब्जियों जैसे टमाटर, मिर्ची, बैंगन आदि में 40 से 60 परसेंट तक नुकसान होता है.

खेतों की मेड़ों पर घास फूस जलाकर धुआं करें. ऐसा करने से फसलों के आसपास का वातावरण गर्म हो जाता है. पाले के प्रभाव से फसलें बच जाती हैं. पाले से बचाव के लिए किसान फसलों में सिंचाई करें. सिंचाई करने से फसलों पर पाले का प्रभाव नहीं पड़ता है. पाले के समय दो व्यक्ति सुबह के समय एक रस्सी को उसके दोनों सिरों को पकड़कर खेत के एक कोने से दूसरे कोने तक फसल को हिलाते रहें जिससे फसल पर पड़ी हुई ओस गिर जाती है और फसल पाले से बच जाती है.

अगर नर्सरी तैयार कर रहे हैं तो उसको घास फूस की टाटियां बनाकर अथवा प्लास्टिक से ढकें और ध्यान रहे कि दक्षिण पूर्व भाग खुला रखें ताकि सुबह और दोपहर धूप मिलती रहे. पाले से दीर्घकालिक बचाव के लिए उत्तर पश्चिम मेंड़ पर और बीच-बीच में उचित स्थान पर वायु रोधक पेड़ जैसे शीशम, बबूल, खेजड़ी, शहतूत, आम और जामुन आदि को लगाएं तो सर्दियों में पाले से फसलों को बचाया जा सकता है.

पाले से बचाव के लिए पाला पड़ने के दिनों में यूरिया की 20 ग्राम/लीटर पानी की दर से घोल बनाकर फसलों पर छिड़काव करना चाहिए. अथवा थायो यूरिया की 500 ग्राम मात्रा 1000 लीटर पानी में घोलकर 15-15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करें. अथवा 8 से 10 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से भुरकाव करें.

इसके आलावा घुलनशील सल्फर 80% डब्लू डी जी की 40 ग्राम मात्रा प्रति 15 लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव किया जा सकता है. ऐसा करने से पौधों की कोशिकाओं में उपस्थित जीवद्रव्य का तापमान बढ़ जाता है. वह जमने नहीं पाता है, फसलें पाले से बच जाती हैं. फसलों को पाले से बचाव के लिए म्यूरेट ऑफ पोटाश की 15 ग्राम मात्रा प्रति 15 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव कर सकते हैं. फसलों को पाले से बचाने के लिए ग्लूकोज 25 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव करें. फसलों को पाले से बचाव के लिए एनपीके 100 ग्राम और 25 ग्राम एग्रोमीन प्रति 15 लीटर पानी की दर से घोल बनाकर छिड़काव किया जा सकता है.

मिर्च उत्पादन मे कमी, इस कीट के चलते देश में मिर्च उत्पादन में आई भारी गिरावट

मिर्च उत्पादन मे कमी, देश में मिर्च उत्पादन में कमी के कारण मिर्च के उत्पादन में आई भारी गिरावट इस कारण से मिर्च में अधिक हुआ थ्रिप्स कीट का प्रकोप पिछले वर्षों में राज्यवार मिर्च का उत्पादन देश में मिर्च उत्पादन में कमी के कारण भारत में मिर्च का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाता है, मिर्च उत्पादन में देश का वैश्विक स्तर पर लगभग 36 प्रतिशत का योगदान है।

मिर्च उत्पादन मे कमी,

भारत में हर साल लगभग 20 से 21 लाख टन मिर्च का उत्पादन होता है। जिसमें सबसे अधिक मिर्च का उत्पादन आंध्र प्रदेश राज्य में होता है, यहाँ देश के कुल मिर्च उत्पादन का लगभग 57 फीसदी मिर्च का उत्पादन होता है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मिर्च के उत्पादन में भारी गिरावट आई है जिसका मुख्य कारण मिर्च की फसल में लगने वाला थ्रिप्स कीट है।

देश में आ रही मिर्च उत्पादन में कमी को लेकर लोकसभा में 19 दिसंबर को सवाल किया गया। जिसमें सांसद श्री केसिनेनी श्रीनिवास ने सवाल पूछा कि देश में बीते वर्षों में मिर्च में आ रही गिरावट का मुख्य कारण क्या है और सरकार ने इसके लिए क्या कदम उठाये हैं। जिसको लेकर केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री श्री अर्जुन मुंडा में विस्तृत जानकारी सदन में रखी। मिर्च के उत्पादन में आई भारी गिरावट अपने जवाब में केंद्रीय कृषि मंत्री ने बताया कि वर्ष 2021-22 में मिर्च की फसल एक नई आक्रमक कीट (थ्रिप्स) प्रजाति से प्रभावित हुई थी और इसके संक्रमण के कारण फसल को काफी नुक्सान हुआ। जिससे राष्ट्रीय स्तर पर मिर्च का उत्पादन वर्ष 2020-21 में 20.49 लाख टन से घटकर 18.36 लाख टन हो गया। आंध्र प्रदेश राज्य में संक्रमण गंभीर था, जहां उत्पादन पिछले वर्ष दर्ज 7.97 लाख टन से घटकर वर्ष 2021-22 में 4.18 लाख टन हो गया था। आंध्र प्रदेश में मिर्च की उत्पादकता वर्ष 2021-22 में 4 से 5 टन/हेक्टेयर की औसत वार्षिक उत्पादकता घटकर 1.86 टन/हेक्टेयर रह गई। यह भी पढ़ें मधुमक्खी पालन के लिए सरकार देगी 90 प्रतिशत तक का अनुदान, होगी इतनी आमदनी इस कारण से मिर्च में अधिक हुआ थ्रिप्स कीट का प्रकोप केन्द्रीय कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा ने बताया कि देश में आ रही मिर्च उत्पादन में गिरावट को लेकर कृषि और किसान कल्याण विभाग के तहत पादप संरक्षण, एवं संगरोध एवं संरक्षण निदेशालय भंडारण (डीपीपीक्यूएंडएस) ने आंध्र प्रदेश में मिर्च की फसल पर थ्रिप्स संक्रमण के सर्वेक्षण और मूल्यांकन के लिए दिसम्बर 2021 में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया। विशेष समिति के आकलन के अनुसार निम्नलिखित कारक थ्रिप्स संक्रमण के संभावित कारण थे:- समिति ने सर्वेक्षण में पाया कि यह आक्रामक कीट थ्रिप्स प्रजाति है। चूँकि थ्रिप्स परविस्पिनस एक आक्रामक कीट प्रजाति है, हो सकता है कि यह देशी मिर्च थ्रिप्स पर हावी हो गया हो / प्रतिस्थापित हो गया हो। असामान्य रूप से तीव्र पूर्वोत्तर मानसून वर्षा के कारण उभार और गुणन के लिए अनुकूल जलवायु परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हों जिससे गर्म और आर्द्र परिस्थितियों ने मिर्च पर थ्रिप्स के प्रकोप को बढ़ावा दिया। अंधाधुंध तरीक़े से रासायनिक कीटनाशकों से का छिड़काव के चलते थ्रिप्स कीट के प्राकृतिक शत्रुओं में कमी भी एक कारण हो सकता है।

जिसने संभवत: मिर्च के खेतों में लाभकारी जीव-जंतुओं और थ्रिप्स परविस्पिनस के प्राकृतिक शत्रुओं को मार दिया है। साथ ही लगातार बुआई के चलते भी थ्रिप्स कीट के प्रकोप में वृद्धि हुई है क्योंकि कीट के लिए लगातार भोजन और आश्रय की जगह बनी रही। यह भी पढ़ें ड्रोन से कीटनाशक छिड़काव के लिए किसानों को दिया जाएगा अनुदान पिछले वर्षों में राज्यवार मिर्च का उत्पादन लोकसभा में पूछे गए सवाल के जवाब में कृषि मंत्रालय द्वारा बताया देश में राज्यवार होने वाले मिर्च उत्पादन की जानकारी दी गई हैं

सर्दी मे फसल को कैसे बचाये

सर्दी मे फसल को कैसे बचाये

नमस्कार, किसान भाईयों जैसा कि सभी को विदित है सर्दी के मौसम में शीतलहर एवं पाले से सभी फसलों जिसमे सब्जियों में टमाटर, मिर्च, बैंगन, मटर, आलु आदि तथा फसलों में चना, सरसों, अरंड, जीरा, धनिया, सौंफ आदि में सबसे ज्यादा नुकसान होता है हालांकि शीत ऋतु वाले पौधे 2 डिग्री सेंटीग्रेड तक का तापमान सहने में सक्षम होते है

सर्दी मे फसल को कैसे बचाये

लेकिन इससे कम तापमान होने पर पौधे की बाहर व अन्दर की कोशिकाओं में बर्फ जमने पर पौधों का हरा रंग, फल, फूल, दाने आदि खत्म हो जाते है अतः ध्यान रखे अगर शाम के समय आसमान साफ हो और हवा बंद हो जाए तो पाला पङने की सम्भावना ज्यादा रहती है तथा जिस रात पाला पड़ने की संभावना हो उस रात खेत की उत्तरी पश्चिमी दिशा से आने वाली ठंडी हवा से बचाव के लिए खेतों के किनारे पर बोई हुई फसल के आसपास, मेड़ों पर रात्रि में कूड़ा-कचरा या अन्य व्यर्थ घास-फूस जलाकर धुआं करना चाहिए ताकि वातावरण में गर्मी आ जाए क्योंकि इस विधि से 4 डिग्री सेल्सियस तक तापमान आसानी से बढ़ाया जा सकता है

पौधशाला के पौधों एवं क्षेत्र वाले उद्यानों/नकदी सब्जी वाली फसलों को टाट, पॉलिथीन अथवा भूसे से ढ़क दें। वायुरोधी टाटिया को हवा आने वाली दिशा की तरफ से बांधकर क्यारियों के किनारों पर लगाएं तथा दिन में पुनः हटा दें। पाला पड़ने की संभावना हो तब खेत में हल्की सिंचाई करनी चाहिए तथा सुबह जल्दी खेत के एक छोर से दूसरी छोर तक रस्सी से पौधो पर जमा पानी को हिलाकर नीचे गिरा कर भी बचाव किया जा सकता है। 🙏🏾🙏🏾